प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास
प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वयं प्रकृति। यह चिकित्सा विज्ञान आज की सभी चिकित्सा प्राणालियों से पुराना है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह दूसरी चिकित्सा पद्धतियों कि जननी है। इसका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में मिलता है, अर्थात वैदिक काल के बाद पौराणिक काल में भी यह पद्धति प्रचलित थी।
प्राकृतिक चिकित्सा का विकास (अपने पुराने इतिहास के साथ) प्रायः लुप्त सा हो गया था। आधुनिक चिकित्सा प्राणालियों के आगमन के फलस्वरूप इस प्रणाली को भूलना स्वाभाविक भी था। इस प्राकृतिक चिकित्सा को दोबारा प्रतिष्ठित करने की मांग उठाने वाले मुख्य चिकित्सकों में बड़े नाम पाश्चातय देशों के एलोपैथिक चिकित्सकों का है। ये वो प्रभावशाली व्यक्ति थे जो औषधि विज्ञान का प्रयोग करते- करते थक चुके थे और स्वयं रोगी होने के बाद निरोग होने में असहाय होते जा रहे थे। उन्होने स्वयं पर प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग करते हुए स्वयं को स्वस्थ किया और अपने शेष जीवन में इसी चिकित्सा पद्धति द्वारा अनेकों असाध्य रोगियों को उपचार करते हुए इस चिकित्सा पद्धति को दुबारा स्थापित करने की शुरूआत की। इन्होने जीवन यापन तथा रोग उपचार को अधिक तर्कसंगत विधियों द्वारा किये जाने का शुभारम्भ किया। प्राकृतिक चिकित्सा संसार मे प्रचलित सभी चिकित्सा प्रणाली से पुरानी है आदिकाल के ग्रंथों मे जल चिकित्सा व उपवास चिकित्सा का उल्लेख मिलता है पुराण काल मे (उपवास) को लोग अचूक चिकित्सा माना करते थे।
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का जन्म भारत में हुआ था तथा इसकी उपयोगिता की महत्ता भी भारत में अति प्राचीन समय से चली आ रही है। जिन-जिन स्वास्थ्य सम्बन्धी प्राकृतिक क्रियाओं का हम प्रयोग कर रहे हैं वे सभी उपचार की पद्धतियां पूर्वावस्था में प्राचीन भारत में विद्यमान थी। भारत में ही रोग निवारण के लिए इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया वरन् अन्य कई देशों में भी इस पद्धति का प्रयोग आज किया जा रहा है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भारत की ही देन है परन्तु कुछ कारणों तथा अन्य विकासों के प्रभावानुसार यह पद्धति भारत में लुप्त हो गई। इसके बाद इसके पुनः निर्माण का श्रेय विदेशों (पाश्चातय देशों) को ही है।
ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व ही हिपोक्रेटीज ने प्राकृतिक चिकित्सा का पुनः पुनरूथान किया। इसी कारण इन्हें ’चिकित्सा का जनक’ कहते है। 18वीं शताब्दी के मध्य से कुछ लोगों के प्रयास के फलस्वरूप प्राकृतिक चिकित्सा का प्रारम्भ तथा विकास फिर शुरू होने लगा तथा हम इस चिकित्सा को पुनः जानने लगे। इस पद्धति के पुनरूथान में जिन महान और प्रभावशाली व्यक्तियों का योगदान है वह पहले से ही रोगों को ही उपचार के लिए औषधियों का प्रयोग करते थे परन्तु औषधियों के प्रयोग के बाद भी रोगों पर सफलता न पा सकने तथा उसके प्रतिकूल प्रभावों को जानने के बाद और स्वयं पर भी औषधि चिकित्सा की प्रणाली के कटुफल चखने के बाद प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ग्रहण कर स्वस्थ जीवन जीने लगे। इन्होने इस पद्धति के चमत्कारों से प्रभावित होने के कारण इस पद्धति के प्रचार-प्रसार और विकास में लग कर प्राकृतिक चिकित्सा को नया जन्म दिया।
भारत में आधुनिक युग में डी. वेंकट चेलापति शर्मा द्वारा वर्ष 1894 में डॉ॰ लूई कूने के प्रसिद्ध पुस्तक ’द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ (ज्ीम दमू ेबपमदबम व िीमंसपदह) का तेलुगु भाषा में अनुवाद करने के साथ प्राकृतिक चिकित्सा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके पश्चात 1904 में बिजनौर निवासी श्री कृष्ण स्वरूप ने इसका अनुवाद हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में किया। पुस्तकों के आगमन के साथ-साथ लोगों की रूचि और उसके अध्ययन में भी वृद्धि होनी प्रारम्भ हुई और शीघ्र ही यह चिकित्सा पद्धति लोगों में प्रचलित होनी प्रारम्भ हुई।
महात्मा गांधी जी एडोल्फ जूस्ट की पुस्तक ’रिटर्न टू नेचरश्’(त्मजनतद जव दंजनतम) पढ़कर बहुत प्रभावित हुए। उनके जीवन में यह पद्धति गहराई तक चली गई और उन्होने तुरन्त प्रभाव से अपने स्वयं के शरीर तथा परिवार के लोगों और आश्रम में रहने वाले लोगों पर उपचार प्रयोग प्रारम्भ किए। उन्होंने कहा की भारत जैसे गरीब देशों में स्वास्थ्य के लिए यह पद्धति सर्वोत्तम पद्धति है। इसका प्रचार उन्होने गांव-गांव में करने के साथ ही पूना के पास उरुली कंचन में एक प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना की और इस चिकित्सालय के चिकित्सक भी बने। उरुली कंचन में पहला प्राकृतिक चिकित्सालय स्थापित होने के कारण ही दक्षिण भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रादुर्भाव सबसे पहले हुआ है।
डॉ॰ कृष्णम राजू ने विजयवाडा से थोड़ी दूरी पर ही एक विशाल चिकित्सालय की स्थापना की। इसके साथ साथ देश में डॉ॰ जानकीशरण वर्मा, डॉ॰ शरण प्रसाद, डॉ॰ महावीर प्रसाद पोद्दार, डॉ॰ गंगा प्रसाद गौड, डॉ॰ विट्ठल दास मोदी, डॉ॰ सदानंद सिंह, डॉ॰ हीरालाल, महात्मा जगदीशवरानन्द, डॉ॰ कुलरन्जन मुखर्जी, डॉ॰ वी. वेंकट राव, डॉ॰ एस. जे. सिंह, इत्यादि के प्रयासों से कई सरकारी संस्थाएं तथा दिल्ली में केन्द्रिय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिशद इत्यादि की स्थापना हेतु मुख्य योगदान दिया जिसके फलस्वरूप आज मान्यता प्राप्त चिकित्सालय पद्धति के रूप में स्वीकार की गई।