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प्राकृतिक आवास

परिवेश:

अक्षुण्ण हरित वातावरण में शान्तिमय अवस्था, मानसिक रूप से रोगियों को अपने आत्मिक स्वाभाविक स्वरूप के सानिध्य में ले आने में सहायक होती है। प्रकृति के मिलन से उत्साहित क्षतिग्रस्त मानव प्राण व काया, रोग मुक्ति के लिए प्रयासरत होते हुए, स्वतः इस चिकित्सा पद्धति को अपनाने में सक्षम हो जाती है। हम अपने परिसर के अन्दर बिना वजह झाड़ियों को भी नहीं काटते। कभी किसी प्रकार के रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग नहीं करते हैं। आवश्यकतानुसार नीम के पत्ते उबाल कर उस पानी का छिड़काव करते हैं। तुलसी के पत्तों से मच्छरों को मरीज़ों के आवासीय क्षेत्र से दूर भगाते हैं। हमारे इन प्रयासों से परिसर में नैसर्गिक संतुलन बना रहता है। परिणाम स्वरूप यहाँ कई प्रकार के जीव - जन्तु, सहजीवन करते देखे जा सकते हैं। इसी वजह से इस परिसर में लुप्तप्राय कई प्रजातियों के जीव-जन्तुओं ने अपना अभयारण्य बना रखा है। ऐसे परिवेश में रहते हुए मरीज़ों को शीघ्र ही स्वास्थ्यलाभ होने लगता है।

नवनिर्मित कुटीर का उद्घाटन करते हुए माननीय मुख्यमंत्री बिहार श्रीमान नितीश कुमार जी एवं पूर्व विदेश एवं वित्त मंत्री, भारत सरकार श्रीमान यशवंत सिन्हा जी

मिट्टी का मकान:

इस केन्द्र की विशेषताओं में मिट्टी के कुटीर में आवास का एक अलग ही चिकित्सकीय महत्व है। मिट्टी, प्राकृतिक खनिज लवणों से समृद्ध होती है और शारीरिक खनिज से इसकी मित्रता होती है इसीलिए मिट्टी के कुटीर में आवास करने से जल्दी ही शरीर के अन्दर की क्षति की पूर्ति होने लगती है। साथ ही मिट्टी, गर्मी की तपिष और ठंढ की ठिठुरन को भी रोक लेती है, जिससे कमरे का तापमान सामान्य और सुखद बना रहता है। इससे एयर कंडीशन और हीटर दोनों का इस्तेमाल सीमित हो जाने के कारण ऊर्जा की भी बहुत बचत होती है।

मिट्टी का मकान ही क्यों ?

शहर के सुप्रसिद्ध नेत्र रोग विषेषज्ञ, जिनके पास मैं अक्सर आया जाया करता हूँ उन्होंने सन् 2002 में मुझे किसी चर्चा में बताया था कि चालीस वर्ष की अवस्था के बाद लगभग सभी को चशमा लग जाता है। मैंने अपने अनुसंधित्सु जिज्ञासा से पूछा था कि, क्या यह बात सभी पर लागू है ? इसपर उन्होंने कहा था कि, नहीं गांव देहात के लोगों को बिना चश्मे के भी लम्बी उम्र तक ठीक दिखता है। मेरी जिज्ञासा ने गांवों की ओर रुख करवाया। मैंने पाया कि गांव में भी कई लोग चश्मा लगाते हैं। फिर और गहरे उतरने पर मैंने पाया कि गांव में भी वे लोग जो मिट्टी के मकान में रहते हैं, पक्के के मकान में रहने वाले लोगों से ज़्यादा अच्छा उनका स्वास्थ्य एवं आंखों की दशा है। मुझे इस जानकारी ने चकित किया कि मिट्टी के मकान में रहने वाले परिवारों में जीर्ण रोग बहुत ही कम अथवा न के बराबर हैं, लेकिन जो परिवार कुछ सम्पन्न होने के उपरान्त पक्के के मकान में रहने लगे, धीरे धीरे उनका स्वास्थ्य कमजोर होता गया। यानी ऐसा कुछ है मिट्टी में जो प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। इसके बाद हमने आदिवासी बस्तियों का भी अध्ययन किया और सकारात्मक नतीजे मिलने के बाद, इसी केन्द्र के प्रांगण में मिट्टी की कुटिया बनवा कर उसमें एक रोगी को रख कर चिकित्सा की और पाया कि यह रोगी इस चिकित्सा में अमूमन लगने वाले समय से आधे में ही अच्छा हो गया। लेकिन हमारी यह कुटिया भागलपुर की मूसलाधार बारिश को न झेल पाई और यह ज़मींदोज़ हो गई। इसके उपरान्त हमने एडोब तकनीक के सहारे मिट्टी के मकान बनाने की कला को अपनाया। मिट्टी के मकान में आधुनिक स्नानागार और शौचालय का संगम अपने आप में अनूठा है। सप्तसिंधु से नामित पाँच ऐसी कुटियाएँ उपलब्ध है।