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(१९२७ - १९९९)

संस्थापक

डॉ सदानन्द सिंह

इस केन्द्र के संस्थापक डॉ सदानन्द सिंह एक सुख्यात स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्हें अंग्रेजी न्यायालय द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में कारावास के साथ चौदह बेंत की सजा दी गई थी।

डॉ सिंह को भारत सरकार ने ताम्रपत्र से सम्मानित किया था और वे भागलपुर जिला स्वतंत्रता सेनानी संगठन के अध्यक्ष थे।

इस केन्द्र की स्थापना के नेपथ्य में महात्मा गांधी की ही प्रेरणा थी, जिन्होंने संस्थापक को मात्र १४-१५ वर्ष की उम्र में प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्तों से अवगत कराया था। इसके उपरान्त संस्थापक ने कई वर्षों तक आरोग्य केन्द्र, गोरखपुर में स्व॰ महावीर प्रसाद पोद्दार एवं स्व॰ विठ्ठल दास मोदी के संरक्षण में रहकर शिक्षण, प्रशिक्षण एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया और भागलपुर लौटकर किराए के मकान में प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र प्रारंभ किया, यह तिथि थी १८ दिसम्बर १९५४, इनके इस कार्य में इनकी मदद सुख्यात शिव भवन के राय बहादुर कमलेश्वरी सहाय ने की और आर्थिक सहयोग श्री बनारसी कोठरीवाल एवं श्री मदनलाल हिम्मत सिंहका ने किया।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के कर कमलों से दिनांक १४ मार्च १९५५ को प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र का औपचारिक उद्घाटन किया गया। लोकनायक जयप्रकाश, संस्थापक डॉ सिंह के व्यक्तित्व एवं चरित्र से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने ०३ अप्रैल १९५७ को संस्थापक के लिए अपनी हस्तलिपि में लिखकर एक चरित्र प्रमाण पत्र भी दिया था। उच्च स्तर पर सुना गया है कि लोकनायक ने यही एकमात्र चरित्र प्रमाण पत्र जारी किया था। लोकनायक को क़रीब से जानने वाले यह जानते हैं कि वे किसी के चरित्र की गारंटी नही देते थे।

गांधी के विचारों एवं दृष्टिकोण के प्रभाव में संस्थापक डॉ सदानन्द सिंह ने प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र को एक सार्वजनिक संस्था के रूप में विकसित किया, जहाँ समाज के निर्धन एवं वंचित वर्ग को निःशुल्क उपचार दिये जाने लगे, बजाय इसके कि वे इसे निजी तौर पर धनोपार्जन करने का साधन बनाते हुए, व्यावसायिक लाभ लेते, उन्होंने इस स्थान को एक जनकल्याणकारी संस्था का रूप देना और उस दौर के अनेक महत्वपूर्ण लोगों को इस केन्द्र से जोड़ना शुरू किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के काल की देश की अग्रिम पंक्ति की अनेक विभूतियों से उनका निकट का सम्पर्क रहा।

प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र को संस्थागत् रूप देने के क्रम में ही उनका सम्पर्क भागलपुर की सुख्यात समाजसेविका, श्रीमती सुधावती अग्रवाल से हुआ, जिन्होंने अपने जीवन के अंत तक इस केन्द्र को तन, मन, धन से आगे बढ़ाया। इन्हीं के प्रयत्न से तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र के अपने भवन की आधारशिला, पंडित जवाहरलाल नेहरु के कर कमलों से १५ फ़रवरी १९६२ को रखी गई। श्रीमती सुधावती अग्रवाल का विस्तृत विवरण ”केन्द्र की स्थापना” और ”श्रद्धांजलि” पृष्ठ में विस्तार से दिया जा रहा है।

संस्थापक डॉ सदानन्द सिंह, कठिन आर्थिक परिस्थितियों में भी जीवनपर्यन्त इस सिद्धांत पर अडिग रहे कि पैसे के आभाव में कोई ग़रीब आदमी इस केंद्र से बिना इलाज के न लौट जाए, अक्सर ऐसे लोगों को अपनी संक्षिप्त आय से वे चुपचाप आर्थिक सहायता भी कर दिया करते थे। हालांकि उन्होंने कभी किसी याचक को खाली हाथ नहीं जाने दिया लेकिन वे प्रयत्नशील भी रहते थे कि इस बारे में लोग न जान सकें, उन्हें किसी की मदद का प्रचार, ओछा और निम्नस्तरीय काम लगता था।

तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र में बड़े पैमाने पर निर्धन रोगियों की निःशुल्क चिकित्सा होती रहती थी, सम्पन्न पृष्ठभूमि के मरीज़ तुलनात्मक रूप से कम लोग होते थे और इस केन्द्र में चिकित्सा का शुल्क भी काफ़ी कम रखा गया था, इसीलिए सम्पन्न लोगों से होने वाली आय भी केन्द्र को चलाने के लिए अपर्याप्त होती थी। सरकार से अनुदान मिलता नहीं था, दानवीर व्यक्ति दान देने के लिए धार्मिक न्यास आदि का रुख़ करते थे, ऐसे में संस्थापक डॉ सदानन्द सिंह, अपने स्तर से केन्द्र को चलायमान रखने के लिए आर्थिक स्तर पर जूझते रहते थे।

लेकिन अनेक असाध्य रोगों के इलाज में वे सिद्धहस्त थे। मरीज़ को दूर से ही देख कर रोग का पता लगा लेने की कला में डॉ सिंह का कोई सानी नहीं था। वे बताया करते थे कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ विधान चन्द्र राॅय के सानिध्य में रहकर उन्होंने यह विद्या सीखी थी। कैंसर की चिकित्सा में वे पारंगत थे और अपने जीवन के आखिरी दस पंद्रह वर्षों में उन्होंने कैंसर के आखिरी स्टेज के अनेक मरीज़ों की भी सफ़ल चिकित्सा की थी, उसमें से कई मरीज़ आज भी जीवित हैं, जबकि उन मरीज़ों के परिचारक (एटेंडेंट) के तौर पर साथ आए हुए लोग वर्षों पहले ही स्वर्गवासी हो गए। एक वक़्त ये भी आया जब तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र के अगल बगल में भी लोग नाम से इस केन्द्र का पता शायद नहीं बता पाते हों लेकिन कैंसर के अस्पताल के तौर पर दूर - दूर तक लोग पता बता देते थे। डॉ सदानन्द सिंह ने कैंसर की चिकित्सा के लिए अंगूर को हथियार बनाया और हमलोगों को सिखाया कि कैंसर नियति नहीं, एक परिस्थिति है जिसे बदला जा सकता है।

समाजवादी सोच और गांधीवादी विचारधारा का होने के कारण, आर्थिक संग्रह के क्षेत्र में संस्थापक डॉ सदानन्द सिंह असफ़ल रहे, इस वजह से तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र का संरचनात्मक विकास नहीं कर पाए। कम साधन और कम सहयोग के बावजूद अपने जीवन के अन्तिम दिन भी वे अपने कर्त्तव्यपथ पर गतिमान रहे। आखिरी दिनों में अक्सर वे एक कैसेट प्लेयर पर किशोर कुमार द्वारा स्वरबद्ध रविन्द्र संगीत “जोदि तोर डाक शुने केऊ ना आशे तौबे ऐकला चोलो रे......” सुनते रहते थे। कैसेट प्लेयर और यह कैसेट अपनी मृत्यु से दो दिन पूर्व यानी ३१ अक्टूबर १९९९ को उन्होंने अपने पुत्र को यह कहते हुए वापस लौटा दिया था कि उन्हें अब इसकी ज़रूरत नहीं है।

उनके बारे में भागलपुर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति एम0 क्यू0 तौहीद प्रायः कहा करते थे कि ”डॉ० साहब का सिर्फ़ शरीर यहाँ वहाँ जाता रहता है लेकिन इनकी आत्मा तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र में ही रहती है”। बांका से आए हुए किसी कैंसर के मरीज़ से बातचीत करते हुए, केन्द्र स्थित अपने कार्यालय की, श्रीप्रकाश जी द्वारा प्रदत्त एक्ज़ीक्यूटिव टेबल पर, दिनांक ०२ नवम्बर १९९९ को संध्या पाँच बजे उन्होंने अपना सिर टेक दिया और अन्तिम सांस ली। संस्थापक के जीवनसंदेश से प्रेरणा लेकर आज भी उनके काम को मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए अनेक ईमानदार व्यक्तियों का समूह प्रतिबद्ध है और डॉ सदानन्द सिंह द्वारा १९५४ में जलाई गई मशाल को लेकर आगे बढ़ रहा है। २०१७ में बिहार सरकार ने इस केन्द्र में प्राकृतिक चिकित्सा का एक सुव्यवस्थित अनुसंधान संस्थान बनाने का निर्णय लिया और इस केन्द्र को सहायता प्रदान की है।

अपने अंतिम वर्षों में संस्थापक